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निबंध

राष्ट्र-पिता, राष्ट्र-ध्वज

श्रीराम परिहार


वर्षा-बूँदों की बाट जोहती 68वें स्वतंत्रता दिवस की प्रथम भोर का स्वागत करने माँ भारती के करोड़ों नन्हें-नन्हें भविष्य सड़कों पर निकल पड़े। शिक्षकों द्वारा हाँके जाने वाले ये देश के नौनिहाल कदम-ताल करते हुए देश की स्वतंत्रता का अर्थ गुन कर रहे हैं। धरती और आकाश के बीच में आदमी की स्वतंत्रता कितना अर्थ बचा सकी है, इसका हिसाब लगाने के लिए देश के कर्णधार नारे लगा रहे हैं। देश की महती आजादी से जुड़े सैकड़ों प्रश्नों को तोड़ने के लिए यह कच्ची पीढ़ी कतारबद्ध बढ़ रही है। हाथ में राष्ट्र-ध्वज थामे अनगुना मन देश-भक्ति राग गा रहा है। गाने की सुर-ताल-लय की तरंगों पर तिरंगा लहरा रहा है।

मैं ठेठ गँवई-गाँव का आदमी, अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्रता का अर्थ क्या जानूँ? मैं जानता हूँ। भारतवर्ष की साँस-साँस ''पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं'' गाती रही और निरंतर एक जायज लड़ाई रही। अद्भुत सहन-शक्ति है - इस मिट्टी की रगों में। इस मिट्टी से बने नगर-देहातों की बात मैं जानता हूँ। स्वाधीनता की असमाप्त जंग की बात जानता हूँ। गगन की ऊँचाई को चुनौती देते हुए राष्ट्र-ध्वज की अपरिमित ताकत को पहचानता हूँ। यह ध्वज भारत की प्राण-शक्ति है। इसका तार-तार अहिंसा की शक्ति से मंत्रित है, जो क्रूरता की शक्ति को पराजित करता हुआ हिंसा के मद को चकनाचूर करता रहा है। इसने सूचीभेद्य अंधकार में भी अपना रास्ता खोजा है और भोर के माथे पर विजय-सुहाग की टिकी लगाई है। यह मूल भारतीय आत्मा के रंगों में डूबकर रंगीला बना है। आज हवा में जहर घुल रहा है। नाखूनों की धार तेज हो रही है। दिशाओं में गुब्बारे फूटने लगे हैं। बाहरी आँखें हमारे द्वार पर ऊँगती-डूबती सुबह-साँझ का लेखा रख रही है। घर अशांत है। कोने-कातरे में पड़ा अधलेटा भविष्य सुबक रहा है। स्वाधीनता दिवस के बीच में खड़ा मेरा राष्ट्र-ध्वज लहरा रहा है।

मैं गाँव की बात इसलिए करता हूँ क्योंकि इस झंडे का अणु-अणु गाँवों के हाथों बना हुआ है। इस देश के संपूर्ण इतिहास ने अपनी अस्मिता की लड़ाई एक ध्वज के नीचे खड़े होकर जीती है। ऋग्वेद काल से लेकर आज तक यह ध्वजा भारतीय मन को निरंतर आकाशमुखी बनाती रही है। राक्षस, शक, हूण, कुषाण, तुर्क, मुगल, अँग्रेज और वर्तमान में फिटर-फिटर करने वाली टुटपूँजिया मनोवृत्त्तियों के खिलाफ इस देश की माटी की गंध फैलती रही है। इसने आत्मा के आलोक को निष्कंप वातावरण दिया है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, लीलावपुधारी श्रीकृष्ण, अशोक, हर्षवर्धन, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, महात्मा गांधी से लेकर आज तक यह विजय-ध्वज भारत की अपराजेयता का प्रतीक बना हुआ है।

दरअसल यह अमित ओज और सलोना सौंदर्य इसे मिला है - भारतीय किसान से। गाँव से। वर्तमान के सम्मान्य राष्ट्र-ध्वज की रूपाकृति का जन्म चाहे मैडम कामा के हृदय में हुआ हो, लेकिन इसके वंश-वृक्ष की जड़ें मनुष्य की प्रथम विजय के प्रथम क्षणों की कुँआरी अनुभूति की जमीन तक पसरी है। उस समय चाहे मनुष्य ने लकड़ी में पत्ता खोंसकर ही गर्वोल्लस प्रकट किया हो, लेकिन यह तय है उसी दिन से यह ध्वज, कर्मवाद से सीधे-सीधे जुड़ गया। युग के अनुरूप इसकी कद-काठी और रूप-स्वरूप में बदलाव आता गया, लेकिन इसके रिश्ते, व्यक्ति के सत्व, किसान की हुमस, खेतों की हरियाली और खलिहान से उठने वाली अन्न-गंधी भभक से खारिज नहीं हो पाए। इसकी गढ़न में भारत माता के सपूतों का माकूल समय और श्रम होम हुआ है।

जरा हम लौटें इतिहास के उन अद्भुत क्षणों में, जिनमें आषाढ़ के पहले दिन कजरारे बादल घिरे होंगे। खेत की मिट्टी बूँदों की छुवन से गदबदाई होगी। नीलकंठ चहका होगा और किसान ने धौले-काले बैलों को टिटकार कर चाँस खींचा होगा। किसान-लक्ष्मी ने 'सरता' पर मूठ रख कर चाँस-चाँस बीज बोए होंगे। कपास का पौधा किसान की पितृत्व भरी दृष्टि की छाँह में पोषित, पुष्पित और फलवत हुआ होगा। सुकुमार अँगुलियों ने कपास को रुई और बिनौलों को खानों में बाँटा होगा। पोनी बनी होगी। देश की नग्नता को ढँककर मानवता का मान बढ़ाने की संकल्प-शक्ति से रच-रच चरखा घूमा होगा। इस चरखे ने भूत-वर्तमान-भविष्य को एक सूत में बाँधा होगा। तार-तार के मेल से कपड़े ने सूरत पाई होगी। रंगरेज ने रंग देकर रंगत दी होगी। कल्पना कीजिए राष्ट्रचेतना की उस घड़ी की, जब त्याग, शांति और विश्वास के रंग, राष्ट्र-नायक के हाथों खड़े डंडे के छोर पर राष्ट्र-ध्वज बनकर लहराए होंगे। तब ही, ठीक उसी समय फिरंगियों की ईमानरहित हवेली दरकी होगी। पहली दरार पड़ी होगी। स्वधीनता का सपना जिंदा होता दिखा होगा। संस्कृति की देह को छूकर दूरागत पवन ने साँस-साँस में घुसकर खून में विशुद्ध प्राणवत्ता भरी होगी। माटी का कण-कण पुकार उठा होगा - 'झंडा ऊँचा रहे हमारा।'

इस झंडे के जन्म, इसके लहकारें, इसकी गढ़न में किसान के खुरदरे हाथों का निश्छल-भोला रंग निरंतर गाढ़ा और गाढ़ा होकर उभरता है। इसकी ऊर्ध्वगामी जिजीविषा में हजारों देश-भक्तों के प्राणों की आहुतियों का उत्सर्ग लहराता है। यह उत्कर्ष-क्षमता इस देश को गाँवों से मिली है। इस बात को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सत्य के धरातल पर महसूस किया था। तभी तो स्वाधीनता की रात राजधानी में दिन की तरह आलोक बिछा था। सारी दिल्ली विद्युत-दीपित थी। यह बूढ़ा कंकड़-काँटों से भरे मार्ग पर चलता हुआ नोआखाली जा रहा था। वह उनके आँसू पोंछ रहा था, जिनके साथ अन्याय हुआ था। वह शहर से गाँव जा रहा था। केंद्र से परिधि की ओर बढ़ रहा था। स्वाधीनता को राजधानी से देहातों के अबूझ कोने-कातरों तक ले जा रहा था। किसान, कवि और नेतृत्व को गांधी जी ने समान जमीन दी है। बापू, पं. माखनलाल चतुर्वेदी की जन्मभूमि बाबई जाने लगे। लोगों ने कहा - रास्ता दुर्गम है। अनेक परेशानियाँ हैं। मौसम ठीक नहीं है, मत जाइए। राष्ट्रपिता गांधी ने कहा - मैं जरूर जाऊँगा। जहाँ कवि पैदा हुआ है, उस जन्मभूमि को मैं जरूर देखूँगा। इस धजा को लेकर चलने वाले मुट्ठी-भर हाड़ के मानव ने राष्ट्र को कैसा नेतृत्व दिया कि पूरे युग की, शताब्दियों की हवाएँ इसके पीछे चल पड़ीं।

मैं कहना चाहता हूँ कि किसान कवि और नेतृत्व का अद्वितीय एकमेक रूप थे - महात्मा गांधी और तीनों की भावानात्मक दृढ़ इच्छाशक्ति के मंथन का सर्वोत्तम फल है - राष्ट्र-ध्वज। ठेठ भारतीय किसान त्याग की प्रतिमूर्ति होता है। वह आजीवन देता ही रहता है। उसे वेदना में जन्म तो मिलता है, लेकिन किस्मतखोट को आवास भी करुणा में नहीं मिल पाता। आज भी फसल अँखुवाने, बड़ी होने और भुट्टों-बालियों से लटालूम होते-होते खलिहान से परभारू ही सेठ, बैंक, पटवारी, कोरट-कचहरी, पंप लाईनमेन के खीचों के रस्ते-रस्ते बँट जाती है। लोन-तेल टुकुर-टुकुर ताकते रह जाते हैं। ओढ़नी की छाँह में से शून्य-ताकती पीताभ आँखों में गदराई कैरी-सी बेटी के ब्याह का मंडप तुड़-मुड़ जाता है। कटोरी-भर दूध के लिए दूध के दाँत अभी भी झगड़ते हैं। धौंस जमींदार की हो, चाहे पटेल की, या फिर सरपंच की, अपना काम ठीक-ठीक करती रही है, कर रही है। किसान अपने जीवन-श्रम और पसीने से सृजन और शक्ति का संसार निर्मित कर रहा है।

संत और कवि ने इस देश की हड्डियों में प्राण फूँके हैं। जीवन को आस्थाएँ दी हैं। मानव-धर्म को दिशा दी है। पाँवों को नृत्य दिया है। आडंबर को नोंचा है। खेतों को गीत दिए हैं। फूल-फूल में माँ की रक्षार्थ तिरोहित होने का आत्मबल दिया है। हमारे संस्कार, सभ्यता एवं संस्कृति को सौंदर्य, उदारता, विस्तार और आकर्षण इन्हीं मनीषियों से मिला। यहाँ मैं उन कवियों की बात कतई नहीं कर रहा हूँ, जो बकौल फणीश्वरनाथ रेणु - ''किसान आंदोलन की बात करते हैं और वे यह भी नहीं जानते कि धान का पौधा होता है या पेड़।'' ऐसे कवियों के प्रति मेरी सहानुभूति है। सहानुभूति यों कि बेचारे निकले थे गुनताड़े में, झूठ को नंगा करने के लिए। लेकिन यात्रा की उपलब्धि यह रही कि पाखंड ने इनके नंगेपन को ढक रखा है और अहं की भारी पोटली लादे चले आ रहे हैं। ऊपर से निहायत सहजता और सीधी-सट्ट सरलता का ढिंढोरा पीट रहे हैं। वैसे ज्यादातर यह होता है कि कुटिल ही अपनी सीधाई का ढोल पीटता है। ऐसों के लिए मेरे पास सहानुभूति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मैं इस तहर की कृत्रिम तनी-शिखाधारी कवियों की बात सत्य के परिप्रेक्ष्य में नहीं कर रहा हूँ। कवि वह - जो सत्य का भोक्ता है। उद्घोषक है। वैतालिक है।

नेतृत्व विश्वासजीवी होता है। अपने युग और अपनी जमीन के सैकड़ों हाथों द्वारा प्रदत्त विराट विश्वास से जन्म लेता है - सच्चा नेतृत्व। किसान और कवि-कर्म की संपूर्ण अवधारणाओं को लेकर चलने वाला नेतृत्व सफलताओं के एवरेस्ट पर झंडा गाड़ता है। देश को स्वतंत्रता की पाती पर ऊषा की स्वर्णिम स्याही से लिखे आखर वाली सुबह देता है। उसमें किसान का त्यागी और कवि का सत्याग्रही रूप होता है। तभी उसमें अविचल विश्वास पलता रहता है।

विश्ववंद्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी में किसान का त्याग, कवि का सत्य और नेतृत्व का अटूट विश्वास छलकता रहता था। बापू का रोम-रोम इन तीनों से अनुप्राणित था। वे निरंतर त्यागते रहे। पेंट-कोट पहनने वाले मोहनदास ने देखा कि इस देश के मूल आदमी के पास तो लँगोटी भर है। तो वे भी धोती-पगड़ी, धोती-बंडी, केवल धोती, फिर मात्र लँगोटी पर आ गए। उपवास आदत बन गया। बोल निरंतर सत्य को परिभाषित करते गंगा की तरह निःस्रत होते थे। विश्वास ऐसा कि ब्रिटिश राजशाही के आतंक के बीच बेधड़क खट-खट चढ़ जाते थे। हर बार उस खौफ की चूलें हिलाकर चले आते थे। यह ताकत त्याग, सत्य और विश्वास ने उन्हें दी थी।

सोचता हूँ, यह राष्ट्र-ध्वज भी तो भरत भूमि के त्याग का, कवियों की वाणी के सत्य का और जन-जन के विश्वास का प्रतीक है। राष्ट्रपिता का संपूर्ण व्यक्तित्व त्याग, सत्य और विश्वास का पर्याय था। यह ध्वज बापू के स्वरूप का पर्याय बन चुका है। धैर्य, शांति और साफल्य का रंग लिए यह स्वाधीन गगन में लहरा रहा है। बापू ने कथनी और करनी के बीच की बीहड़ खाइयों को सहजता से पाटा था। राष्ट्र-ध्वज को धारण करने के लिए वे उसका भावात्मक स्वरूप बन चुके थे। अखंड और अविभाज्य स्वरूप। तत्व-चिंतन ने हमें जीवन को समग्र रूप में देखने की परंपरा दी है। जीवन, जगत और शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर देखने की हमारी आदत नहीं है। झोपड़ी, गाँव, कस्बे, शहर का गड्डमगड्ड तथा तहसील, जिले, प्रांत के व्यवस्थित समन्वय का अटूट रूप है - यह भारतवर्ष। उपनिषद् कहती है - ''अविभक्तं विभक्तेषुः।'' विभाजन का अविभाज्य रूप है यह देश। विविधता में ही इसकी एकता निहित है। अनेकता में एकता इसके गुण-धर्म हैं। यह ध्वज इन विविधताओं की सुंदर बुनावट है। भारत की अखंडता इसमें बसती है। महर्षि अरविंद ने हमारी संस्कृति को कमल की संज्ञा दी है। राष्ट्र-ध्वज भी डंडे की नाल पर कमलवत खिला है। देश के जुड़ाव की सारी क्षमताओं-संभावनाओं को लेकर यह विहँस रहा है।

गांधी-तिलक, नानक-कबीर, तुलसी-रवींद्र, के धरती-आकाश में लहराता यह राष्ट्र-ध्वज 15 अगस्त, 2015 की प्रातः बेला में बहुत कुछ अशुभ घटता देख रहा है। आज विश्व की जमीन खुशी की ललाई से लाल नहीं है। बाजारवाद, आतकंवाद एवं वर्चस्ववाद के विद्वेष से यह रँगी हुई है। आदमी अपनी चमड़ी को खुरचकर अपने खून का स्वाद लेने के लिए धधक उठा है। वह अपनी हड्डियों को जहाँ-तहाँ सड़कों पर, जंगलों में, आबादियों में, पूजा-आस्थाओं की जगहों पर तेज दाँत वाले जबड़ों से कुतर रहा है तथा अपने ही जबड़े का खून हड्डी पर लगा देख और जोर से चबाता है। वह अपने ही जबड़े की घायलता से बेखबर है। मेरे देश का भविष्य परेशान है। छोटे बच्चे हाथ में राष्ट्र-पताका लिए सोचते हैं - ''पापा दफ्तर से शाम को घर लौटेंगे या नहीं। तीरथ करने जा रहे किसान की न जाने किस बस की खबर सुबह अखबार में आने वाली है। न जाने कब इस शहर में कर्फ्यू लग जाएगा। न जाने कब कौन आतंकी हमारी सीमा में खुसकर अपने नापाक इरादे बो देगा।'' शिक्षक राष्ट्रीय चरित्र संपन्न पीढ़ियों के निर्माण का विश्वास जगाने वाली आवाज में कहता है - ''बच्चों आगे बढ़ो।'' नन्हें-नन्हें भविष्य सुबह का स्वागत करते हुए, हाथ में तिरंगा थामे, आगे बढ़ते हुए गगनभेदी स्वरों में गाते हैं - ''झंडा ऊँचा रहे हमारा।'' मैं पाता हूँ - इन सैकड़ों आवाजों की तरंगों पर राष्ट्र-ध्वज और तेज लहरा रहा है। बच्चों के स्वर फिर फूटते हैं - 'दे दी हमें आजादी बिना खड़ग, बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।'


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